इतिहास गवाह है! जब-जब गठबंधन किया तब-तब सपा को हुआ नुकसान, क्या अब बदलेगी रणनीति

Loksabha Chunav: अगर हम पहले हुए चुनाव के नतीजों को देखें तो जब जब समाजवादी पार्टी ने गठबंधन किया है उसे सीटों का नुकसान ही हुआ है। फिर चाहे BSP के साथ समझौता हो या फिर कांग्रेस के साथ। हर बार सहयोग देने के बाद समाजवादी पार्टी को सबक ही मिला है

अपडेटेड Feb 12, 2024 पर 7:10 PM
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लोकसभा चुनावों के लिए अखिलेश यादव और राहुल गांधी की दोस्ती बनी रहेगी या टूट जाएगी!

कांग्रेस के नेता चाहते हैं कि गठबंधन के रथ पर सवार होकर उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें गहरी कर लें। इसके लिए वह ज्यादा से ज्यादा सीट चाहते हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के अकेले चुनाव लड़ने के ऐलान और बिहार में नीतीश कुमार की NDA में चले जाने के बाद कांग्रेस का खेल बिगड़ता जा रहा है। कांग्रेस दबाव में आ गई थी। लेकिन राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी के NDA में जाने से सपा भी दबाव में है। इससे कांग्रेस को अब लोकसभा की ज्यादा सीट पाने की संभावना बढ़ गई है।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेता चाहते हैं कि उनका केंद्रीय नेतृत्व अखिलेश यादव पर दबाव डाले कि वह कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा सीट दें। और सिर्फ 11 सीट देकर कांग्रेस के कद को ना घटाएं। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व अपनी सीमाओं को समझ रहा है। वह अखिलेश यादव से बिगाड़ नहीं करना चाहता। अब कांग्रेस नेताओं को लग रहा कि जो सात सीट रालोद (राष्ट्रीय लोक दल- RLD) के खाते में जा रही थी वो अब कांग्रेस के खाते में आ जाएगी। इसीलिए कांग्रेस नेताओं ने अखिलेश यादव से मांग की है कि कांग्रेस को कम से कम 20 सीट दी जाए।

गठबंधन टूटने से किसे लगा सबसे बड़ा झटका!


बिहार और पश्चिम बंगाल में इंडिया गठबंधन के बिखरने का सबसे ज्यादा किसी को झटका लगा है तो वह है कांग्रेस। लेकिन RLD के सपा से दूरी बनाने के बाद दबाव में सपा भी है। उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यही थी कि वह इंडिया गठबंधन के सहयोगियों की शर्तों को किस हद तक स्वीकार करें और किस हद तक दबाव में आए। यह अलग बात है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव इस बार अपनी शर्तों पर ही चुनाव लड़ना चाहते हैं। चुनाव का नेतृत्व वही कर रहे हैं। अखिलेश यादव यह बात बार-बार दोहरा भी चुके हैं। उन्होंने अपने सहयोगी दलों को एकतरफा सीट भी बांट दी थीं। लेकिन रालोद के पाला बदलने के बाद अखिलेश की यह कोशिश बेमकसद हो चुकी है।

अखिलेश यादव ने कांग्रेस को 11 लोकसभा सीट दी हैं जबकि कांग्रेस को यह सीट बहुत कम लग रही है। उसे अपनी हैसियत कहीं ज्यादा बड़ी लग रही है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 28 सीट चाहती थी। कांग्रेस को लगता है की उत्तर प्रदेश में अखिलेश उसकी हैसियत बहुत कम माप रहे हैं। सपा को लगता है कि यदि मोदी को हराना है तो कांग्रेस को ज्यादा सीटों की मांग नहीं करनी चाहिए। वहीं दूसरी ओर सपा ने अपने पुराने सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल को सात सीट देकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में न सिर्फ अपने स्थिति मजबूत करने का प्रयास किया था बल्कि RLD को कहीं ज्यादा महत्व भी दिया था। यह अलग बात है कि राष्ट्रीय लोकदल के कार्यकर्ताओं को यह गठबंधन ही गले नहीं उतर रहा था। और अब इस RLD ने NDA में जाने का फैसला कर लिया है।

अखिलेश यादव ने रालोद को सात सीट देकर चार पर अपने लोगों को ही टिकट देने की मांग रख दी थी। रालोद को यही नागवार लगा था। यह साफ है कि अब समाजवादी पार्टी के साथ सिर्फ कांग्रेस ही है और मुस्लिम वोटो में इसका असर भी है। पहले उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेता यह कहकर समाजवादी पार्टी को दबाव में लेने की कोशिश कर रहे थे की बसपा से गठबंधन की बातचीत चल रही है और पार्टी ने अपने विकल्प खुले रखे हैं।

यह अलग बात है कि बसपा से कांग्रेस की गठबंधन को लेकर कभी कोई गंभीर बातचीत हुई ही नहीं । वास्तव में यह खेल राज्य कांग्रेस के नेताओं का था। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने अपने राष्ट्रीय नेतृत्व पर इस बात के लिए दबाव डाला था कि बसपा से गठबंधन किया जाए। वास्तव में कांग्रेस नेता उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीट चाहते थे और अखिलेश यादव ने पहले ही कह दिया था की सीटों की संख्या ना देखी जाए।

समाजवादी पार्टी के पास क्या है विकल्प

यदि किसी लोकसभा क्षेत्र में मजबूत प्रत्याशी है तो वह सीट ली जाए। सिर्फ लड़ने के लिए नही बल्कि जीतने के लिए। बसपा के अकेले चुनाव लड़ने के ऐलान और रालोद के अलग होने के बाद अब सपा और कांग्रेस के सामने सिर्फ एक विकल्प बचा है कि दोनो शर्तों को किनारे कर आपसी सहयोग से चुनाव लड़े। कांग्रेस नेता नहीं चाहते की अन्य किसी राज्य में इंडिया गठबंधन में कोई बिखराव हो।

दूसरी ओर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव अब प्रत्याशियों का चयन करते जा रहे हैं। लगभग 25 लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर वह प्रत्याशी तय कर चुके हैं। इससे स्पष्ट है कि वह कांग्रेस के दबाव में नहीं आ रहे और अपने ढंग से चुनाव लड़ने जा रहे हैं। सपा के नेता मानते हैं कि गठबंधन की राजनीति उनके लिए हमेशा भारी रही है और इसीलिए इस बार गठबंधन की कमान अखिलेश ने स्वयं संभाली है। इसके पहले वह गठबंधन के मामले पर कई बार धोखा खा चुके हैं ।

यह अलग बात है कि समाजवादी पार्टी अपने ऊपर ऐसी कोई भी तोहमत नहीं लेना चाहती जिससे यह संदेश जाए कि विपक्षी एकता में वह बाधक बनी। इससे मुस्लिम वोटो में बिखराव का डर भी है। सपा ने कांग्रेस और रालोद को सीट देकर यह संदेश देने का प्रयास किया था की उसने इन दोनों दलों को उनकी हैसियत कहीं ज्यादा सीट दी हैं। लेकिन पश्चिम उत्तर प्रदेश में रालोद के कार्यकर्ता इसलिए नाराज थे क्योंकि अखिलेश यादव टिकट वितरण के मामले पर दूसरे दलों पर भी दबाव बनाते रहे है।

गठबंधन से सपा को हर बार नुकसान

2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में रालोद का खाता भी नहीं खुला था जबकि 2019 में सपा बसपा और रालोद का महा गठबंधन चुनाव मैदान में था। कांग्रेस सिर्फ एक सीट जीत पाई थी और वह भी रायबरेली की जहां से सोनिया गांधी चुनाव जीती थी। लेकिन राहुल गांधी स्वयं अमेठी से हार गए थे।। समाजवादी पार्टी इन्हीं आंकड़ों के बल पर विपक्षी एकता के नाम पर कुर्बानी देने की बात कह रही है। सपा के एक नेता कांग्रेस को ग्यारह सीट ही देने का कारण बताते हुए कहते है की वास्तव में सपा को गठबंधन कभी रास नहीं आया।

कांग्रेस ने भी डुबाई नैया

2017 के विधानसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस को 100 सीट दी थी। लेकिन कांग्रेस जीती सिर्फ सात सीट। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा ने लोकसभा की 80 सीट में बहुजन समाज पार्टी को 38 सीट दी। यही नहीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने जिस सीट पर उंगली रख दी वह उन्हें दे दी गई। परिणाम यह हुआ कि बसपा दस सीट जीत गई जबकि सपा को सिर्फ पांच सीटों पर सफलता मिली। इसी लिए अखिलेश अब कांग्रेस को इसके आगे बहुत ज्यादा सीट देने के मूड में नहीं है। उनका दावा है कि इससे मोदी के खिलाफ लड़ाई कमजोर होगी।

हां रालोद के जाने के बाद सीटों में की संख्या में परिवर्तन जरूर होगा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि उसकी जमीनी आधार कमजोर है। यह अलग बात है कि कांग्रेस राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा को चुनाव का टर्निंग पॉइंट बता रही है। लेकिन जमीन पर भारत जोड़ो यात्रा का ऐसा कोई ज्यादा प्रभाव दिखेगा और वह वोटो में तब्दील हो जाएगा यह समय बताएगा। उसके सहयोगी दल यह तथ्य बहुत अच्छे ढंग से जानते हैं। इसलिए कांग्रेस के तमाम दावों और कोशिशों के बावजूद क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व में ही कांग्रेस को चुनावी समर में उतरना पड़ेगा।

Brijesh Shukla

Brijesh Shukla

First Published: Feb 12, 2024 7:10 PM

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