बड़ी मुश्किल है 'अति पिछड़े' वोटर्स की राजनीति, इस लोकसभा चुनाव में किस की झोली में बरसेगा ये वोट?

Lok Sabha Elections 2024: सवाल ये भी उठ रहे हैं कि आखिर विपक्ष अपनी इस कोशिश में कहा तक कामयाब होगा भी या नहीं? विपक्ष की ये कोशिश मजबूती से चल रही है कि किसी तरह बीजेपी के पाले से अति पिछड़ों को अपने पाले में किया जाए। ये सवाल बड़ा भी है और लोकसभा के चुनाव का निर्णय करने वाला भी है। विपक्ष की तमाम कोशिशें चल रही हैं, लेकिन इसका असर फिलहाल धरती पर नहीं दिख रहा है

अपडेटेड Feb 15, 2024 पर 6:15 AM
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Lok Sabha Elections 2024: 'अति पिछड़ा' यानि OBC... ये वोट बैंक राजनीतिक दलों की किस्मत बदल देता है। जिसके साथ जाता है, वौ राजनीति का सिरमौर बन जाता है

Lok Sabha Elections 2024: 'अति पिछड़ा'... ये वोट बैंक राजनीतिक दलों की किस्मत बदल देता है। जिसके साथ जाता है, वौ राजनीति का सिरमौर बन जाता है। कभी अति पिछड़े चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh) के साथ हुआ करते थे। समय बदला और ये मतदाता मुलायम सिंह (Mulayam Singh Yadav) के साथ हो गया, तो कभी बीजेपी के साथ। राजनीति में जब बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ, तो अति पिछड़े मतदाताओं का एक हिस्सा BSP के साथ भी जाने लगा। लेकिन 2014 में जब नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) भारत के प्रधानमंत्री पद का चेहरा बने, तब से अति पिछड़े पूरी तरह से उनके साथ हो गए हैं। विपक्षी दल इस बात के तमाम प्रयास कर चुके हैं कि किसी तरह पिछड़ा वोट उनके पाले में चला आए, खासतौर से अति पिछड़े, लेकिन अब तक कोई प्रयास सफल नहीं हो पाया है।

2024 के लोकसभा चुनाव में क्या होगा? अति पिछड़े किसके साथ रहेंगे? वोट पाने के लिए अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने PDA का नारा दिया यानि पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक, लेकिन फिलहाल वह मोदी के साथ ही दिख रहा है। विपक्षी दल इस वोट को वापस पाने के लिए लगातार प्रयासरत रहते हैं और ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि नरेंद्र मोदी अति पिछड़े नहीं हैं।

पिछले दिनों कांग्रेस के नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने कहा कि नरेंद्र मोदी अति पिछड़े नहीं हैं । इस तरह के प्रयास मायावती कई बार कर चुकी हैं। वह ये साबित करने के लिए कई प्रेस कॉन्फ्रेंस भी कर चुकी हैं। लेकिन ये प्रयास मोदी को और मजबूत कर देते हैं और अति पिछड़ा वोट उनके साथ कहीं ज्यादा मजबूती से जुड़ जाता है।


हरदोई के संडीला कस्बे के शिवलाल कश्यप कहते हैं कि मोदी के साथ वो हैं और रहेंगे भी, जो पिछड़ों की मदद कर रहा है, वो उसके साथ हैं। अगर कोई पिछड़ा होकर भी पिछड़ों का साथ नहीं देता, तो उसके साथ जाने से क्या फायदा। उनके साथ खड़े विनय मौर्य बताते हैं कि मोदी पिछड़े वर्ग से हैं। अब विपक्षी ये बताएंगे कि कौन क्या है, क्या नहीं है? राहुल गांधी अपने बारे में बताएं कि वह क्या हैं? साफ है कि आज भी अति पिछड़े नरेंद्र मोदी के साथ खड़े हुए हैं।

लखनऊ के ही बख्शी तालाब के राम आसरे वर्मा कहते हैं कि पिछड़े वर्ग के मोदी के समर्थन में रहने के कुछ मजबूत कारण हैं। पहली बार अति पिछड़ों को उनका हक मिला है। उन्हें सीधी सहायता मिल रही है। उन्हें मुफ्त अनाज मिल रहा है। मकान मिले हैं। दूसरी योजनाओं का लाभ भी मिला है। जबकि पहले योजनाएं कागजों में आती थी और चली जाती थीं। अति पिछड़े कभी लाभ ही नहीं पाते थे। वह बताते हैं की अति पिछड़ों के नाम पर तमाम घोषणाएं की गईं, लेकिन उसका लाभ नहीं मिला।

वे आगे कहते हैं, "मुलायम सिंह यादव के शासन में भी उन्हें लाभ नहीं मिला और मायावती की सरकार में तो उन्हें कोई मदद मिली ही नहीं। अब जब मदद मिल रही है, तो कुछ लोग ये साबित करने में लगे हैं कि नरेंद्र मोदी पिछड़े हैं या नहीं हैं। वह अति पिछड़ों की मदद कर रहे हैं, यही बहुत है।"

लखनऊ के मलिहाबाद के धर्म प्रजापति कहते हैं कि ये साबित करने का प्रयास क्यों हो रहा है कि नरेंद्र मोदी पिछड़े हैं या नहीं? इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, जो मदद करे, वही हमारा है। वह कहते हैं कि चाहे मंत्री बनाना हो चाहे MP बनाना हो या MLA बनाना हो, ग्राम प्रधान बनाना हो या उनको मदद करनी हो, अब तो अति पिछड़ों की आवाज सुनी जा रही है।

लेकिन सवाल ये भी उठ रहे हैं कि आखिर विपक्ष अपनी इस कोशिश में कहा तक कामयाब होगा भी या नहीं? विपक्ष की ये कोशिश मजबूती से चल रही है कि किसी तरह बीजेपी के पाले से अति पिछड़ों को अपने पाले में किया जाए। ये सवाल बड़ा भी है और लोकसभा के चुनाव का निर्णय करने वाला भी है। विपक्ष की तमाम कोशिशें चल रही हैं, लेकिन इसका असर फिलहाल धरती पर नहीं दिख रहा है।

बीजेपी नेतृत्व इस बात को जानता है कि उनके साथ अति पिछड़ा क्यों है। यही कारण है कि जब उत्तर प्रदेश में राज्यसभा के टिकट दिए गए, तो उसमें अति पिछड़ों का बोलबाला था। इसलिए विपक्ष की ये कोशिश भी कामयाब होती नहीं दिख रही है।

बेहद मुश्किल है अति पिछड़ों की राजनीति

अति पिछड़ों की राजनीति बहुत कठिन रही है। उनके लिए नारे लगते रहे, लेकिन उन तक फायदे नहीं पहुंचे। एक दौर था, जब चौधरी चरण सिंह किसानों के नेता थे और उसमें अति पिछड़े भी थे और सामान्य भी थे। चौधरी चरण सिंह को मिले अति पिछड़ों के समर्थन के कारण ही 1980 में इंदिरा लहर के बावजूद चौधरी साहब की जनता पार्टी सेक्युलर को 30 से ज्यादा सीट मिल गईं।

यही नहीं विधानसभा की चुनाव में भी उनकी पार्टी जोरदार प्रदर्शन करती दिखी, लेकिन इसके बाद चौधरी साहब की पकड़ थोड़ी कमजोर हुई और उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह यादव और कल्याण सिंह- दो पिछड़े वर्ग के नेताओं का उदय हुआ। कल्याण सिंह अति पिछड़े वर्ग से थे। मुलायम सिंह यादव की पूरी राजनीति ही पिछड़ों पर आधारित थी।

साल 1989 आते-आते भारतीय जनता पार्टी ने ये समझ लिया कि उत्तर प्रदेश में पिछड़ों और अति पिछड़ों की राजनीति के बिना सफलता संभव नहीं है। एक तरफ रामजन्म भूमि आंदोलन चला, दूसरी तरफ बीजेपी ने कल्याण सिंह के चेहरे को आगे कर दिया। 1989 में इसी वर्ग के वोटो के बल पर मुलायम सिंह, मुख्यमंत्री बन गए और 1991 में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री हुए, लेकिन 1993 में बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव के बीच एक गठजोड़ हुआ और अति पिछड़ा वोट मजबूती से इस गठबंधन को चला गया।

1995 में जब मुलायम सिंह यादव से समर्थन वापस लेकर मायावती मुख्यमंत्री बन गईं, तो उन्होंने सबसे ज्यादा ध्यान अति पिछड़ों को अपनी पार्टी से जोड़ने पर दिया। अब अति पिछड़े वर्ग के वोटों के तीन दावेदार थे। एक सपा, दूसरी बीजेपी और तीसरी BSP। इन स्थितियों में पिछड़े वर्ग के वोटो में बिखराव आया और जातीय आधार पर ये पूरी तरह बिखर गया, लेकिन पिछड़े वर्ग के वोटों पर जोर लगातार बना रहा और सभी दल ये वोट पाने का प्रयास करते रहे, लेकिन बिखराव के कारण ये निर्णायक नहीं हो सका।

2014 में जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया, तो एक परिवर्तन दिखा, जो पिछड़ा वर्ग टुकड़ों में विभाजित हो गया था। उसमें से एक बड़ा वर्ग एकजुट हुआ और वो मोदी के साथ चला गया। मोदी इस वोट की ताकत को जानते थे।

बिखरा हुआ है अति पिछड़े वर्ग का मतदाता?

वास्तव में जमीनी आधार पर देखने पर अति पिछड़े वर्ग का मतदाता बिखरा नजर आता है। कुछ जिलों में यादव और कुछ जिलों में कुर्मी वोट निर्णायक लगता है । लेकिन जो अति पिछड़ा मतदाता है, उसके तमाम गांव में दो-दो तीन-तीन घर होते हैं, लेकिन जब इनकी संख्या जोड़ी जाए, तो ये यादव और कुर्मी मतदाताओं से कहीं बड़ी संख्या में होता है और इसकी ताकत कई गुना हो जाती है।

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने इस वर्ग के मतदाताओं को जोड़कर रखा और 2017 के विधानसभा चुनाव में इसी वोट बैंक की मदद से सपा बुरी तरह हार गई और बसपा का सफाया हो गया। 2019 का लोकसभा चुनाव बीजेपी के लिए सबसे कठिन चुनौती था, क्योंकि समाजवादी पार्टी बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल तीनों ने गठबंधन कर लिया था और इनका वोट प्रतिशत 50 से ऊपर जा रहा था, लेकिन जमीन पर देखने पर ये साफ हो गया कि अति पिछड़ा पूरी तरह मोदी के साथ बना हुआ था और ये वोट बीजेपी के लिए संजीवनी साबित हुआ।

मतगणना के पहले तक बड़े-बड़े चुनावी पंडित यही आकलन करते रह गए कि महागठबंधन को भारी सफलता मिलेगी, लेकिन जब EVM खुली, तब समझ में आया कि अति पिछड़े मतदाता की ताकत क्या है। अति पिछड़ा वोट एकजुट होकर मोदी के साथ गया था और महागठबंधन, जो एक तरफा स्वीप होने की उम्मीद कर रहा था, उसे पराजय का सामना करना पड़ा।

अब एक बार फिर मोदी मैदान में हैं और इस वोट पर पर ध्यान केंद्रित है, जो उन्हें जिताता रहा है। क्या होगा इस बार? किसके पाले में जाएगा ये वोट? इसको लेकर तमाम भविष्यवाणी हुआ करती हैं। अब जल्द ही ये साफ हो जाएगा कि ये मोदी के साथ जाता है या विपक्ष के। अगर ये नरेंद्र मोदी के साथ गया, जैसा लग रहा है, तो ये चुनाव एक तरफ साबित हो जाएगा।

Brijesh Shukla

Brijesh Shukla

First Published: Feb 15, 2024 6:15 AM

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