Electoral Bond Scheme: क्या है चुनावी बॉन्ड, कैसे पार्टियों को मिलता था इससे चंदा, क्यों मचा इसे लेकर इतना बवाल? जानें सब कुछ

Electoral Bond Scheme: भारत में मार्च और मई के बीच नई सरकार चुनने के लिए लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर हैं। ऐसे में इन चुनावी बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट की रोक ने मोदी सरकार की उन तमाम कोशिशों के झटका दे दिया, जिसके तहत वो ये सुनिश्चित करना चाहती थी कि राजनीतिक फंडिंग में केवल 'सफेद' धन का इस्तेमाल हो और वो भी सीधे बैंकिंग चैनलों के जरिए

अपडेटेड Feb 15, 2024 पर 1:19 PM
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Electoral Bond Scheme: सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड यानि इलेक्टोरल बॉन्ड को संविधान के तहत दिए गए सूचना के अधिकार का उल्लंघन करार दिया

Electoral Bond Scheme: सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने गुरुवार को लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) से पहले एक बड़ा ही अहम फैसला सुनाया है, जिसमें चुनावी बॉन्ड यानि इलेक्टोरल बॉन्ड (Electoral Bond) को संविधान के तहत दिए गए सूचना के अधिकार (Right to Information) का उल्लंघन करार दिया। साथ ही शीर्ष अदालत ने इस स्कीम को रद्द भी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि ये स्कीम संविधान में दिए गए सूचना के अधिकार और बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का उल्लंघन करती है।

प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड की अध्यक्षता वाली पांच-जजों की संविधान पीठ ने चुनावी बॉन्ड को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर दो अलग-अलग, लेकिन सर्वसम्मत फैसले सुनाए। चीफ जस्टिस ने कहा कि ये संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। बेंच ने कहा कि नागरिकों की निजता के मौलिक अधिकार में राजनीतिक गोपनीयता, संबद्धता का अधिकार भी शामिल है।

अदालत ने बॉन्ड रद्द करने की मांग करने वाली याचिका पर अपना फैसला सुनाया। ये योजना जांच के दायरे में है, और शीर्ष अदालत ने नवंबर में कहा था कि इस तरह के बॉन्ड का "मनी लॉन्ड्रिंग के लिए दुरुपयोग" किया जा सकता है।


कब लाई गई थी इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम?

चुनावी बॉन्ड स्कीम को केंद्र सरकार ने दो जनवरी 2018 को लागू किया था। इसके जरिए कोई भी नागरिक अपनी पसंद की पार्टी को चंदा या दान दे सकता है। वैसे तो इस बॉन्ड को राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने की कोशिश के रूप में पेश किया गया था, लेकिन इसे लेकर सबसे बड़ा सवाल यही रहा है कि चुनावी बॉन्ड के जरिए किसी भी दानकर्ता की पहचान क्यों उजागर नहीं की जा सकती?

इन बॉन्ड को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से खरीदा जा सकता था, लेकिन इन्हें गुमनाम रूप से पार्टियों को दान किया जा सकता है। ये बॉन्ड कोई एक अकेला शख्स भी खरीद कर दान कर सकता या एक साथ मिलकर कई लोग भी इसके जरिए राजनीतिक दलों को चंदा दे सकते हैं।

क्या है चुनावी बॉन्ड?

ये चुनावी बॉन्ड एक करेंसी नोट की तरह ही होता है। इसे उदाहरण से आप ऐसे समझें, मान लीजिए आपको किसी पार्टी को 1000 रुपए का चंदा देना है, तो आप स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से 1000 रुपए का चुनावी बॉन्ड खरीद सकते हैं। इसी तरह 10,000 रुपए, 100,000 रुपए, 10,00,000 लाख रुपए और एक करोड़ रुपए तक के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा सकते हैं।

इन बॉन्ड को कोई एक शख्स, ग्रुप या कॉर्पोरेट संगठन भी खरीद सकता है और अपनी पसंद के राजनीतिक दल को दान किया जा सकता है। राजनीतिक पार्टियां 15 दिनों के भीतर उन्हें बिना ब्याज के भुना सकती हैं।

क्यों सवालों के घेरे में रहा चुनावी बॉन्ड?

आलोचकों का कहना है कि भले चुनावी बांड का इस्तेमाल करने वाले दानकर्ता की पहचान तकनीकी रूप से गुमनाम होती है, लेकिन स्टेट बैंक ऑफ इंडिया एक सरकार बैंक है, जिसका मतलब ये है कि सत्तारूढ़ दल के पास इसके डेटा का एक्सेस है।

साथ ही ये आरोप भी लगाए जाते रहे हैं कि बड़े दानदाताओं को विपक्षी दलों को चंदा देने के लिए चुनावी बॉन्ड का इस्तेमाल करने से रोका जा सकता है।

इसके अलावा, 2017 में, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी मोदी सरकार को आगाह किया गया था कि शेल कंपनियां 'मनी लॉन्ड्रिंग' के लिए इन बॉन्ड का दुरुपयोग कर सकती हैं।

वहीं 2019 में देश के चुनाव आयोग ने भी इस सिस्टम को लेकर कहा था कि राजनीतिक फंडिंग या चंदे की पारदर्शिता को बेहतर बनाने की जगह, इसने उलट ही काम किया है।

दाताओं की पहचान उजाग करनी होती है, जो कैश में 20,000 रुपए से ज्यादा का चंदा उन्हें देते हैं। लेकिन चुनावी बांड के जरिए दान करने वालों के नामों कभी भी खुलासा नहीं किए जाता है, चाहे रकम कितनी भी बड़ी क्यों न हो।

Shubham Sharma

Shubham Sharma

First Published: Feb 15, 2024 12:51 PM

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