Budget 2024 : सरकारी बैंकों का निजीकरण करना सरकार के लिए मुश्किल काम रहा है। एनडीए और यूपीए दोनों ने ही सरकारों ने इसे अपने टॉप रिफॉर्म प्लान का हिस्सा बनाया था। दोनों ने बड़े वादे भी किए थे। लेकिन, ये वादे कागजों पर सिमट कर रह गए। इसमें सबसे बड़ी कमी राजनीतिक इच्छाशक्ति की रही। सरकार ने 2019-20 में 10 सरकारी बैंकों का विलय चार बैंकों में किया था। उसके बाद सरकार ने LIC को IDBI में बड़ी हिस्सेदारी खरीदने को कहा। 2024 में सरकार का फोकस सरकारी बैंकों के प्राइवेटाइजेशन पर हो सकता है। कम से कम सरकारी हलकों में इसकी चर्चा सुनने को मिल रही है। लेकिन, इसके लिए हमें यूनियन बजट 2024 (Union Budget 2004) का इंतजार करना होगा। वित्तमंत्री Nirmala Sitharaman 1 फरवरी को पेश करेंगी। बजट भाषण में इस बारे में सरकार ब्लूप्रिंट पेश कर सकती है।
निजीकरण के रास्ते मे कई मुश्किल
सवाल है कि क्या वास्तव में निजीकरण होगा? दरअसल सरकारी बैंकों के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं। अब भी इन बैंकों में एंप्लॉयीज ट्रेड यूनियंस का बड़ा असर है। दूसरा बड़ा मसला यह है कि अब भी इन बैंकों के कामकाज का तरीका सरकारी है। इसका मतलब है कि इन बैंकों में कामकाज का माहौल प्राइवेट और न्यू एज बैंकों से काफी अलग है। ऐसे में इन्हें खरीदने वाले बैंक या वित्तीय संस्थाओं को सबसे पहले इनमें बदलाव की कोशिश करनी होगी। प्राइवेटाइजेशन का मसला राजीनितिक रूप से भी काफी संवेदनशील है। पहले सरकार बैंकों के निजीकरण के फैसले का राजनीतिक विरोध हुआ है। हालांकि, इस साल रिफॉर्म्स के लिहाज से राजनीतिक तस्वीर बेहतर होती दिख रही है।
लोकसभा चुनावों में एनडीए की जीत से मिलेगी मदद
हाल में राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा का पलड़ा भारी रहा है। अगर इस साल लोकसभा चुनावों में एनडीए की जीत के बाद केंद्र में फिर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनती है तो सरकार को बैंकों के निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में दिक्कत नहीं आएगी। निजीकरण का मतलब है कि सरकारी बैंकों में आधा से ज्यादा हिस्सेदारी किसी खरीदार को बेच दी जाएगी। सरकार नए सिरे से इस प्रक्रिया को शुरू करना चाहती है।
बैंकों की वित्तीय सेहत पहले से बेहतर
फिलहाल सरकारी बैंकों के निजीकरण के लिए समय अनुकूल दिख रहा है। बैंकों की बैलेंसशीट अच्छी है। उनकी सेहत में काफी सुधार आया है। RBI की दिसंबर की फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट में कहा गया है कि इंडियन बैंकों की वित्तीय सेहत पिछले कुछ सालों के मुकाबले अब काफी बेहतर हो गई है। इनका ग्रॉस नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स रेशियो घटकर सितंबर 2023 में 3.2 फीसदी पर आ गया। नेट नॉन-परफॉर्मिंग रेशियो घटकर सिर्फ 0.8 फीसदी रह गया है। फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक, कैपिटल-टू-रिस्क-वेटेड एसेट्स रेशियो 16.8 फीसदी है, जबकि उनका कॉमन इक्विटी टियर 1 रेशियो 13.7 फीसदी है। इससे पता चलता है कि पूंजी के लिहाज से उनकी स्थिति बहुत अच्छी है। इसमें बड़े लोन राइट-ऑफ का बड़ा हाथ है।
इन चुनौतियों से पार पाना होगा
सरकार के लिए अब भी कुछ बड़ी चुनौतियां बनी हुई हैं। पहला, सरकारी बैंकों में अब भी एंप्लॉयी यूनियन मजबूत स्थिति में है। वे प्राइवेटाइजेशन के खिलाफ हैं। एंप्लॉयीज यूनियन को निजीकरण के लिए मनाना आसान नहीं होगा। एंप्लॉयीज यूनियंस को राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल हैं। दूसरा, हालांकि, एनपीए में बड़ी कमी आई है, लेकिन कामकाज की संस्कृति अब भी बदली नहीं है। लोन देने के तौर-तरीकों में बदलाव नहीं आया है। इनके कामकाज में सरकारी झलक दिखती है। इसका मतलब है कि अब भी बड़े फैसले लेने के लिए इन्हें टॉप ऑफिसर्स की मंजूरी हासिल करनी होती है।