चंदन श्रीवास्तव
चंदन श्रीवास्तव
शिक्षा का बजट थोड़ा बढ़ गया है लेकिन याद रहे थोड़ा ही बढ़ा है ज्यादा नहीं। यों समझें कि पिछले बार के बजट में शिक्षा के मद में 93224 करोड़ रुपये खर्च करने का वादा था तो इस बार वादे का आकार कुछ बढ़ गया है। इस बार के बजट में केंद्र सरकार ने शिक्षा के मद में 104278 रुपये खर्च करने का इरादा जाहिर किया है।
क्या इस थोड़ी सी बढ़वार पर थोड़ा सा खुश हो लिया जाये ? खुश होने की मनाही नहीं है लेकिन खुशफहमी पालने से बचना चाहिए सो, खुश होने से पहले कुछ तथ्यों पर गौर कर लें। एक तो यह कि भले ही पिछले शिक्षा-बजट (2021-22) के पांच अंकों की तुलना में इस बार का शिक्षा-बजट छह अंकों का है लेकिन `कम देना- ज्यादा बताना` की कहानी जस की तस है। याद करें कि दो साल पहले यानी 2020-21 में शिक्षा के मद में 99,311 करोड़ रुपये की रकम आबंटित हुई थी।
रकम बढ़ी तो कितनी
तो, आप यों भी कह सकते हैं कि शिक्षा के मोर्चे पर जितना खर्च करने का हौसला इस सरकार ने दो साल पहले दिखाया था, इस बार उससे बस इंच भर ही आगे बढ़ी है-- 1 हजार करोड़ रुपये बढ़ा दिये हैं। इस बार का बजट अगर पिछले बजट(2021-22) से बढ़ा हुआ लग रहा है तो इसलिए कि साल 2021-22 के बजट में साल 2020-21 के शिक्षा बजट की तुलना में 6 हजार करोड़ रुपये की कमी (99 हजार करोड़ से घटाकर 93 हजार करोड़) की गई थी।
दूसरी बात यह कि भले ही पिछले(2021-22) के बजट में शिक्षा के मद में 93224 करोड़ रुपये का आबंटन हुआ हो लेकिन संशोधित अनुमान यानी रिवाइज्ड एस्टीमेट (1 फरवरी 2022 के बजट के तथ्यों के हिसाब से) घटकर 88002 रुपये रह गया है और जहां तक 2020-21 के बजट में आबंटित 99 हजार करोड़ रुपये की बात है तो इस बार के बजट के तथ्यों के मुताबिक साल 2020-21 में शिक्षा के मद में वास्तविक खर्चा 84219 रुपये का ही हो पाया।
थोड़े में कहें तो सरकार जितनी रकम शिक्षा के मद में देने का वादा वित्तवर्ष के शुरुआती वक्त में करती है, वित-वर्ष के समाप्ति के ऐन पहले तक उसमें 5-10 करोड़ रुपये की कमी हो जाती है। आबंटित कुल बजट का शत-प्रतिशत हिस्सा कभी शायद ही कभी खर्च हो पाता है। पिछले एक दशक की कहानी यही रही है। बीते एक दशक में किसी साल ऐसा ना हुआ कि केंद्रीय खर्चे का 3 प्रतिशत से ज्यादा शिक्षा के मद में खर्च करने को मिले जबकि नई-पुरानी सारी ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह बात कही जाती रही है कि देश की जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर खर्च होना चाहिए।
शिक्षा का बजटः ऑनलाइन शिक्षा
साल 2022 का बजट एक ऐसे समय में पेश हुआ है जब शिक्षा के मोर्चे पर इतिहास अपने को दोहरा रहा है। ओमिक्रॉन के असर में स्कूल, कॉलेज, युनिवर्सिटी बंद हैं। पिछली बार भी ऐसा ही था- फरवरी की शुरुआत कोविड की दूसरी लहर के चपेट में स्कूल-कॉलेज, कोचिंग सेन्टर सब बंद थे। कोरोनाबंदी को चरणबद्ध ढंग से खोला गया तो स्कूल-कॉलेज खुले लेकिन अब कोविड की तीसरी लहर के बीच फिर से उसी पुराने ऑनलाइन ढर्रे पर आ गये हैं।
ऑनलाइन शिक्षण के ढर्रे ने शिक्षा-जगत को आमूल रुप से बदल दिया है और वित्तमंत्री ने बजट-भाषण में शिक्षा के क्षेत्र में हुए इस नये बदलाव पर पर्याप्त समय दिया। उन्होंने डिजिटल एजुकेशन पर जोर देते हुए बजट-भाषण में कहा कि एक डिजिटल युनिवर्सिटी बनायी जायेगी ताकि देश भर के छात्र घर बैठे गुणवत्तापूर्ण विश्वस्तरीय सार्विक(युनिवर्सल) शिक्षा हासिल कर सकें। वित्तमंत्री का यह भी कहना था कि डिजिटल युनिवर्सिटी से मुहैया की जाने वाली यह पढ़ाई तमाम भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होगी।
इसी क्रम में वित्तमंत्री ने छात्रों की जरुरत के गुणवत्तापूर्ण ई-कंटेन्ट तैयार करने और रेडियो, टीवी, मोबाइल फोन और इंटरनेट के जरिए इस कटेन्ट को छात्रों तक पहुंचाने की बात भी कही। पीएम ई-विद्या के तहत अभी वन क्लास-वन टीवी चैनल का जो प्रोग्राम 12 चैनलों के जरिए मुहैया कराया जा रहा है उसे 200 टीवी चैनल्स पर उपलब्ध कराने की बात भी बजट-भाषण में सामने आयी। वित्तमंत्री ने तर्क ये रखा कि वन क्लास-वन टीवी प्रोग्राम को 200 चैनलों से मुहैया कराने पर राज्यों को सुविधा होगी, वे पहली से बारहवीं तक के छात्रों को क्षेत्रीय भाषाओं में पूरक शिक्षा(सप्लिमेंटरी एजुकेशन) मुहैया करा पायेंगे।
ख्याल तो नेक है, लेकिन क्या कोविड-काल के इस तीसरे चरण में हम देश के विशाल शिक्षा-जगत को इस मुताबिक ढाल पाये हैं कि वन क्लास-वन टीवी जैसे प्रोग्राम सारे स्कूलों तक पहुंच पायें? देश में पहली से लेकर बारहवीं तक की कक्षाओं में पढ़ रहे कितने छात्रों के पास स्मार्टफोन, टेब्लेट या फिर लैपटॉप आदि हैं कि उनतक गुणवत्तापूर्ण एजुकेशनल ई-केंटेट पहुंचाने के सपने बुने जा रहे हैं ?
शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट
पिछले साल अक्तूबर माह की शुरुआत में शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट Initiatives by the School Education Sector in 2020-21 नाम से आयी थी। इस रिपोर्ट के तथ्यों के आधार पर समाचार बना कि देश के सात बड़े राज्यों असम, आंध्रप्रदेश, बिहार, गुजरात, झारखंड, मध्यप्रदेश तथा उत्तराखंड में स्कूल जाने वाले 40 से 70 प्रतिशत छात्र के पास डिजिटल एक्सेस का कोई साधन नहीं हैं।
मध्यप्रदेश में 70 प्रतिशत छात्र डिजिटल एक्सेस से वंचित हैं तो बिहार में 58 प्रतिशत छात्र। आंध्रप्रदेश में 57 प्रतिशत छात्रों को सरकार डिजिटल एक्सेस दिला पाने में नाकाम रही तो असम में 44 प्रतिशत को। झारखंड, (43.42%), उत्तराखंड (41.17%) और धनी कहलाने वाले राज्य गुजरात (40%) में भी 40 से ज्यादा छात्र डिजिटल एक्सेस से वंचित हैं। इन छात्रों के पास कोई डिजिटल डिवाइस नहीं कि वे ई-कंटेन्ट हासिल कर सकें।
शिक्षा मंत्रालय की इस रिपोर्ट से पहले (सितंबर, 2021) में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक टोली ने स्कूली बच्चों की ऑनलाइन तथा ऑफलाइन पढ़ाई के संबंध में हुए सर्वेक्षण के आधार पर Emergency Report on School Education के तथ्य सार्वजनिक किये थे। देश के कुल 15 राज्यों में हुए सर्वेक्षण पर आधारित इस रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना-काल में ग्रामीण क्षेत्र के 37 प्रतिशत छात्र पढ़ाई छोड़ चुके हैं और देश के गंवई इलाकों में मात्र 8 प्रतिशत छात्र ही ऐसे हैं जो ऑनलाइन पढ़ाई कर पाने में सक्षम हैं। रिपोर्ट के तथ्यों से उजागर हुआ कि ऑनलाइन पढ़ाई का ढोल चाहे जितना पीटा जा रहा हो लेकिन उसकी पहुंच बहुत सीमित है।
रिपोर्ट के लिए हुए सर्वेक्षण के वक्त शहरी क्षेत्रों के मात्र 24 प्रतिशत छात्र ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे थे जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले छात्रों की तादाद केवल 8 प्रतिशत थी। इसका एक बड़ा कारण था बच्चों के पास डिजिटल एक्सेस के डिवाइस जैसे, स्मार्टफोन का ना होना। जिन घरों में स्मार्टफोन थे वहां भी स्कूल की ओर से पढ़ाई के निर्धारित वक्त में बच्चे ऑनलाइन नहीं जुड़ पाते थे क्योंकि उपलब्ध एकमात्र स्मार्टफोन का इस्तेमाल उस वक्त घर के व्यस्क सदस्य कर रहे होते थे।
वन क्लास-वन टीवी जैसा प्रोग्राम चलाया तो जा रहा है लेकिन टीवी को रखने के लिए क्लासरुम भी होना चाहिए। डीआईएसई( District Information System for Education) के आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में 59400 स्कूल बस एक कमरे में चलते हैं। कुल 1 लाख 20 हजार स्कूल ऐसे हैं जहां 50 से ज्यादा छात्र एक साथ बैठते हैं और इसमें बहुत से स्कूलों में कई कक्षा के विद्यार्थी एक ही साथ बैठा करते हैं।
हर क्लास को टीवी मुहैया कराने की बात तो हम तब करें जब स्कूल में विद्यार्थी आयें। देश की स्कूली शिक्षा का बुनियादी ढांचा इतना लचर है कि कोरोनाकाल की जरुरतों (जैसे,छात्रों के बीच फिजिकल डिस्टेंस) को ध्यान में रखते हुए नियमों(जैसे,छात्रों के बीच फिजिकल डिस्टेंस या फिर बार-बार हाथ धोना) का पालन करें तो स्कूल खोले ही नहीं जा सकते।
कोरोना-काल में स्कूल खोलने के लिए जरुरी है कि वहां साफ पेयजल, शौचालय आदि की व्यवस्था पर्याप्त हो। स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत के बाद से अबतक स्कूलों में लड़को और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय की व्यवस्था शत-प्रतिशत नहीं हो पायी है। स्कूलों में 94 प्रतिशत मामलों में लड़कों के लिए शौचालय उपलब्ध हैं तो लड़कियों के लिए 92 प्रतिशत मामलों में। पेयजल की कारगर सुविधा वाले स्कूलों की संख्या अब भी देश में 89% ही है। अगर कारगर पेयजल सुविधा, शौचालय सुविधा और हाथ धोने की सुविधा यानी साफ-सफाई से संबंधित इन तीनों सुविधाओं को एक साथ मिला दें तो एक साथ इन तीन सुविधा वाले स्कूलों की तादाद देश में बस 54 प्रतिशत मिलेगी आपको।
इन आंकड़ों से गुजरने के बाद आप खुद सोचें कि कितने छात्र ऑनलाइन पढ़ाई के लिए बनायी जा रही युनिवर्सिटी के ई केंटेन्ट को डाऊनलोड कर पायेंगे और क्लासरुप में पहुंचाये जाने वाले टीवी सेट्स को निहारने के लिए कितने छात्र स्कूल पहुंच पायेंगे?
(लेखक कृषि और आर्थिक मामलों के जानकार हैं)
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