तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और असदुद्दीन ओवैसी कभी एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे। राव अलग तेलंगाना राज्य के लिए आंदोलन चला रहे थे, जबकि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन (AIMIM) के अध्यक्ष के तौर पर असदुद्दीन औवैसी अविभाजित आंध्र प्रदेश के प्रबल समर्थक थे। हालांकि, 2014 में तेलंगाना राज्य के गठन के बाद दोनों एक-दूसरे के करीब आ गए। चंद्रशेखर राव नए राज्य में 63 सीटों के साथ सरकार बनाने में सफल रहे थे।
केसीआर यह बात भलीभांति समझते थे कि ओवैसी और उनकी पार्टी का हैदराबाद के मुस्लिमों के बीच प्रभाव है और अगर उन्हें राज्य की राजधानी में अपना असर बनाए रखना है, तो ओवैसी को साथ लेकर चलना होगा। लिहाजा, उन्होंने ओवैसी को स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं दिखाई। राव 2014 से कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं। दरअसल, कांग्रेस पार्टी भी अलग तेलंगाना राज्य के गठन का श्रेय लेने की कोशिश कर रही है।
केसीआर ने मुसलमानों को नौकरियों और पढ़ाई में 12 पर्सेंट आरक्षण देने का वादा किया है। साथ ही, पुराने हैदराबाद को इस्तांबुल की तरह विकसित कर रहे हैं, ताकि मुसलमानों का समर्थन हासिल किया जा सके। साल 2014 से केसीआर को AIMIM के समर्थन का भी काफी फायदा मिला है। इस बार हैट्रिक लगाने की केसीआर की कोशिश काफी कुछ ओवैसी के समर्थन पर निर्भर करती है। हालांकि, इस बार मुस्लिम वोटरों का राजनीतिक मूड बदला हुआ नजर आ रहा है, लिहाजा ओवैसी और केसीआर के लिए मुश्किल हो सकती है।
मुस्लिम वोटों के लिए लड़ाई
इस बार AIMIM की स्थिति कुछ कमजोर नजर आ रही है। कांग्रेस ओवैसी को मोदी सरकार की बी-टीम के तौर पर पेश करने में कुछ सफल दिख रही है। महाराष्ट्र और बिहार के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में AIMIM की एंट्री से बीजेपी को काफी फायदा मिला। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में भी ओवैसी का असर महसूस किया जा सकता है। हालांकि, कर्नाटक में घुसने की उनकी कोशिश इस साल बुरी तरह असफल रही। इस राज्य के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट पूरी तरह से कांग्रेस को गया। कर्नाटक का यह ट्रेंड केसीआर के लिए चिंता की बात है, क्योंकि पड़ोसी राज्य तेलंगाना में अगर यह ट्रेंड दोहराया जाता है, तो उन्हें मुश्किल हो सकती है।
केसीआर के लिए बढ़ रही हैं मुश्किलें
केसीआर ने अपने राज्य में भले ही खुद को सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतिनिधि के तौर पर पेश किया हो, लेकिन बीजेपी के खिलाफ संघर्ष करने वाले नेता के तौर पर उनका छवि कमजोर हुई है। मुसलमानों से जुड़े कई मुद्दों मसलन हिजाब, तीन तलाक आदि पर उनकी चुप्पी इसकी अहम वजह हो सकती है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा तेलंगाना के मुस्लिम बहुल इलाकों से भी गुजरी थी और इसके परिणामस्वरूप मुसलमानों के मूड में भी बदलाव नजर आ रहा है।
राजनीतिक वजूद की तलाश में मुसलमान
हैदराबाद शहर की 7 विधानसभा सीटों पर मुसलमानों का वोट 50 से 85 पर्सेंट तक है, जबकि शहर की अन्य 7 सीटों पर इस समुदाय का वोट 20-25 पर्सेंट है। हैदराबाद के बाहर तेलंगाना की तकरीबन 30 विधानसभा सीटों पर मुसलमानों की आबादी 15-20 पर्सेंट है। कुल मिलाकर, राज्य की 45 विधानसभा सीटों पर मुसलमान निर्णायक भूमिका में हैं। केसीआर भले ही ओवैसी और AIMIM को भले ही खुश रखने की कोशिश में जुटे रहते हैं, लेकिन उनकी पार्टी बीआरएस (BRS) मुसलमानों को उनकी आबादी के हिसाब से राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने में असफल रही है और यह शिकायत लगातार बनी हुई है। इस बार उनकी पार्टी ने सिर्फ 3 मुसलमानों को टिकट दिया है, जबकि राज्य के 3.20 करोड़ मतदाताओं में कुल 13 पर्सेंट मुसलमान हैं।