सुरेंद्र किशोर
सुरेंद्र किशोर
जब-जब पाक सीमा पर आतंकवादियों की हलचल बढ़ती है, केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी के इस्तीफे की याद आती है। दिवंगत त्यागी ने ताशकंद समझौते की कुछ शर्तों से असहमत होकर सन 1966 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। स्वतंत्रता सेनानी महावीर त्यागी ने तब कहा था कि 1965 के युद्ध में जीती गई हाजीपीर की चैकियां भारत की सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन्हें वापस नहीं किया जाना चाहिए था।
इसके बावजूद ताशकंद में सोवियत संघ के जोर देने पर हमारे मंत्री स्वर्ण सिंह और वाई.बी.चव्हाण ने प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को इस बात के लिए मना लिया कि हाजीपीर के मोर्चे से हम अपनी सेना को वापस बुला लें। त्यागी मानते थे कि "हाजीपीर सैनिक दृष्टि से इतना अहम स्थान है कि जिस सेना का इस मोर्चे पर कब्जा होगा, उसे किसी भी हालत में हटाना संभव नहीं हो सकता।
और, बिना इस मोर्चे को अपने हाथ में लिए हमें कश्मीर के उस हिस्से को कब्जे में लेना असंभव है जिसे पाकिस्तान ने हड़प रखा है। महावीर त्यागी को इस बात का अफसोस था कि खुद प्रधान मंत्री शास्त्री जनता के समक्ष किए गए अपने वायदे को भूल गए।
त्यागी लिखते हैं कि 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय मैंने लाल बहादुर शास्त्री से कई बार यह घोषणा करा दी थी कि कश्मीर की वह भूमि जिसका पाकिस्तान ने अपहरण कर लिया था,और जिसे इस युद्ध में हमने पाकिस्तान से छीनकर अपने कब्जे में कर लिया है,उसे हम किसी भी शत्र्त पर पाकिस्तान को वापस नहीं लौटाएंगे। याद रहे कि त्यागी उस समय देश के पुनर्वास मंत्री थे।
ताशकंद में प्रधान मंत्री शास्त्री के निधन के बाद गुलजारी लाल नंदा के नेतृत्व में अस्थायी मंत्रिमंडल बना। उसमें महावीर त्यागी भी शामिल थे। ताशकंद समझौते पर मुहर लगाने के लिए अस्थायी मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई। जब मंत्रिमंडल उस पर मुहर लगा रहा था तो महावीर त्यागी ने उसका विरोध किया। त्यागी ने कहा कि यह काम स्थायी मंत्रिमंडल पर छोड़ देना चाहिए।
जब उनकी बात नहीं मानी गई तो महावीर त्यागी विरोध स्वरूप मंत्रिमंडल की बैठक से निकल गए ।उन्होंने मंत्री पद से अपना इस्तीफा नंदा जी को भेज दिया। बाद में महावीर त्यागी ने समाचारपत्रों के लिए जो बयान जारी किया, वह इस प्रकार था-
"इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पाकिस्तान और भारत तब तक अच्छी तरह उन्नत और संपन्न नहीं बनेंगे, जब तक इन दोनों देशों में आपस की एकता स्थापित नहीं हो जाती। मेरा विश्वास है कि हमको पूरा प्रयत्न इस बात का करना होगा कि हमारे और पाकिस्तान के आपसी भेदभाव शांतिपूर्ण ढंग से दूर हो सकें और अपने झगड़ों को निपटाने के लिए हम दोनों कभी भी सैनिक शक्ति का प्रयोग न करें।"
त्यागी जी ने लिखा कि जहां तक ताशकंद समझौते का संबंध है, मैं इसके ध्येय और शुभ भवनाओं से पूरी तरह सहमत हूं। परंतु इस समझौते में कुछ बातें ऐसी हैं, जो हमारी सरकार और हमारी पार्टी की ओर से सितंबर, 1965 के पश्चात की हुई घोषणाओं से कत्तई विपरीत हैं।
इस समझौते के कई तत्व बहुत ही गंभीर हैं, इसलिए मेरी राय में अस्थायी मंत्रिमंडल को इस पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाने और इसे संसद से पास कराने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़नी नहीं चाहिए। क्योंकि अस्थायी मंत्रिमंडल के लिए ऐसे गंभीर प्रश्न पर अपना निर्णय देने के बजाए उचित होता दो-तीन दिन ठहर कर नए प्रधान मंत्री और मंत्रिमंडल का इंतजार करें।
दिवंगत त्यागी ने कहा कि "मैं मंत्रिमंडल को इस बात के लिए तैयार नहीं कर सका कि वह दो दिन ठहर जाएं। जहां तक मेरा संबंध है,मेरे लिए अपनी सेना को हाजीपीर के मोर्चे से वापस बुलाने का आदेश देने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़ना कठिन है।"
"केवल भारत के प्रतिरक्षा मंत्री पद का ही नहीं,बल्कि मुझे प्रथम विश्व युद्ध के सैनिक की हैसियत से भी युद्ध के मोर्चे के कुछ निजी अनुभव हैं। जिसके आधार पर मैं कह सकता हूं, कि 5 अगस्त 1965 को जीती हुई हाजीपीर की चैकियों को छोड़ना भयंकर भूल होगी,विशेषकर जबकि पाकिस्तान अपने छापामारों, अपने गुप्तचरों और बिना वर्दी के हथियारबंद सैनिकों को वापस बुलाने और भविष्य में ऐसे आक्रमण न करने को कटिबद्ध नहीं होता है।"
त्यागी ने यह बात भी बताई कि "ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के तुरंत बाद पाकिस्तान वालों ने यह साफ शब्दों में कह दिया कि समझौते में जो हथियारबंद पाकिस्तानियों को वापस बुलाने का जिक्र है, उसका अर्थ यह नहीं कि हम अपने हथियारबंद छापामारों को कश्मीर से वापस बुलावेंगे और एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का अर्थ भी यह नहीं है कि हम जम्मू और कश्मीर में कोई दखल न दें क्योंकि इस समझौते के बावजूद जम्मू कश्मीर के क्षेत्र को पाकिस्तान अपना निजी क्षेत्र मानता है।"
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के जानकार हैं)
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